२. इतिहास खंड
भारत में गोहत्या का प्रारम्भ
एक बड़ा प्रश्न है कि क्या भारतवर्ष में आर्यों द्वारा आदिकाल में गौमांस खाया जाता था। बहुत से प्रश्न खड़े किये जाते हैं जैसे वेदों में गौभक्षण लिखा है। कुछ ग्रंथो में गौभक्षण शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसे आधुनिक इतिहास शौधकर्ता पुरातन भारत में गौमांस भक्षण से जोड़ते हैं। जिसे अपभ्रंश के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। वास्तव में गौ का एक अर्थ इन्द्रियां भी है और गौभक्षण अर्थात् काम, क्रोध, स्वाद, वासना, आलस्य आदि यानि इन्द्रियों के दमन के लिए लिखा गया लगता है। भारतीय संस्कृति में तो गौवंश पालन, सुरक्षा, दान, आदि के आख्यान भरे पड़े हैं। समुद्र मंथन में रत्न के रूप में कामधेनु-गौ प्रागट्य, रघुवंश के राजा दिलीप, द्वापर युग में गोपालकृष्ण आदि कितने ही उदाहरण हैं। रामायण का प्रारम्भ ही गौमांस भोजन में होने की आकाशवाणी से हुआ था जिसमें केवल गौमांस की सुचना से राजा प्रतापभानु को रावण बनना पड़ा था।
कहा जाता है कि महाभारत में गोहत्या की इजाज़त दी गई है जबकि महाभारत के अश्वमेधिकपर्व बैश्णव धर्मपर्व के 12वें अध्याय में गाय की महिमा के बारे में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा--राजन्, जिस समय अग्निहोत्री ब्राह्मण को कपिला गोदान में दी जाती है, उस समय उसके सींगों के अग्रभाग में बिष्णु तथा इंद्र वास करतें हैं। सींगों के जड़ में चंद्रमा तथा वज्रधारी इंद्र रहतें हैं। सींगों के बीच में ब्रह्मा तथा ललाट में शिव का निवास होता है। इसी तरह आगे गाय के प्रत्येक अंगों में विभिन्न देवी-देवताओं के वास के बारे में बताया गया है।
गाय और गौवंश तो शुरू से हमारे यहाँ अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी गयी है उसके वध की इजाजत कैसे दी जा सकती है? महर्षि च्यवन ने अपने शरीर का मूल्य राजा नहुष के साम्राज्य को नहीं वरन् एक गाय को माना था। नंदिनी गाय की रक्षा में प्रभु श्रीराम के पूर्वज राजा दिलीप अपने प्राण देने को तैयार हो गये थे। महर्षि जमदग्नि तथा ऋषि वशिष्ठ ने गोरक्षा के लिये प्राणों की बाजी लगा दी थी। श्रीकृष्ण को तो गाय पालने के कारण ही गोपाल कहा गया है।
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि हिंदू धर्मग्रंथों में गोहत्या जैसे घृणित कर्म की इजाज़त नहीं दी गई है। जिन लोगों ने भी हिंदू ग्रंथों में गोहत्या तथा गोमांस का वर्णन आना बताया है वो इन ग्रंथों के श्लोकों की गलत व्याख्या करते हैं।
गोरक्षा की राह में सबसे बड़ी बाधा ऐसी मानसिकता के लोग हैं। वेदों के प्रख्यात विद्वान अति प्रसिद्ध व्याख्याकार महर्षि दयानंद सरस्वती ने ‘गोमेध‘ शब्द की व्याख्या करते हुये अपने गंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ में लिखा है, “जो कोई भी ब्राह्मण ग्रंथों में प्रयुक्त अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि शब्दों का अर्थ घोडें, गाय आदि को मारकर होम करना बतातें हैं उन्हें इसकी जानकारी नहीं है। वेदों में कहीं भी गोहत्या की इजाजत नहीं हैं केवल वाममार्गी ग्रथों में ऐसा लिखा है। अग्नि में घी आदि का होम करना, अश्वमेध, इंद्रियां, किरण, पृथ्वी, आदि को पवित्र करना गोमेध, तथा जब मनुष्य मर जाये तो विधिपूर्वक उसके शरीर दाह करना नरमेध है।
ये भी है कि वैदिक काल में मनुष्य पशुओं पर बहुत अधिक निर्भर रहा करते थे। यही कारण है कि वेदों में बहुत सारे पशुओं का उल्लेख हुआ है। वैदिक यज्ञों को संपन्न करने में भी कईं प्रकार के पशुओं की आवश्यकता होती थी। यथा घोड़े का उपयोग अश्वमेध यज्ञ में तथा रथों को खींचने आदि के कामों में किया जाता था। सुअर का उपयोग सफाई कार्यों में होता था वहीं बैल हल तथा गाड़ी को खींचने में काम आते थे। कुत्ता रखवाली का काम करता था। इसी तरह विभिन्न पशुओं का याज्ञिक कार्यों में कई तरह का उपयोग था और इन सारे पशुओं में गाय का स्थान सर्वोपरि था क्योंकि गाय का घी, गोदुग्ध, दही, गोबर इत्यादि का व्यापक प्रयोग यज्ञादि कार्यों में, हिंदू धार्मिक संस्कारों में होता रहा है।
यज्ञ के दौरान यज्ञकुंड के आसपास गायें बांध दी जाती थी ताकि आवश्कता पड़ने पर तुरंत ही ताजा दूध निकाला जा सके या गोबर प्राप्त किया जा सकें।
बांधने का दूसरा प्रयोजन ये भी था कि यजमान यज्ञ के पश्चात् याज्ञिकों को दक्षिणा में गायें दिया करते थे क्योंकि उस समय लोग पशु को भी धन ही मानते थे। अतः दक्षिणा प्रसंगों में गौदान, अश्वदान, अजादान आदि शब्द सामान्य रुप से प्रचलन में थे। इसी को अश्वालंभ, गवालंभ आदि भी कहा जाता था। इसी प्रसंग में गोमेधयज्ञ आता है।
फारसी ग्रंथ जंदावेस्ता, अथर्ववेद से काफी हद तक मिलता जुलता है और इसे एक तरह से अथर्ववेद का फारसी भाषा में रूपांतरण ही समझा जाता है। इसके कई श्लोकों और अथर्ववेद के मंत्रों में काफी समानताएं है। इस ग्रंथ के अध्ययन के आधार पर वेदों के ऊपर शोध करने वाले विद्वान डा. मार्टिन हाग कहतें हैं कि गोमेध का अर्थ गोवध नहीं वरन् इसका अर्थ मिट्टी को उर्वरा बनाकर वनस्पति उगने योग्य कर देना है। जंद भाषा में गोमेध का अपभ्रंश गोमेज है जिसका यही अर्थ है। हाग लिखतें हैं कि पारसी मत में खेती करना धर्म समझा जाता है। इस कारण कृषिधर्म से संबंध रखनेवाले प्रत्येक क्रियाकलाप धर्मकार्य ही समझा जाता है।
अतः कृषिधर्म से संबंध रखनेवाले समस्त क्रियाकलाप का नाम गोमेज है। महर्षि दयानंद के अनुसार शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है अन्नं हि गो अर्थात् अन्न का नाम गौ है वहीं मेध शब्द मेधा व मेधावी अर्थ में आता है। इसका अंगेजी अनुवाद कल्चर है। कल्चर शब्द कृषि के लिये ही आता है। अतः भूमि को अन्न उगाने योग्य करने कोही गोमेघ कहा गया।
अव्वल तो ये कि हिंदू धर्मग्रंथों में कहीं भी ऐसा वर्णन नहीं है कि हिंदुओं में गोमांस का चलन था और एक क्षण के लिये यह मान भी लिया जाये कि ऐसा था भी तो भी क्या यह हिंदुओं के बौद्धिक विकास का द्योतक नहीं है कि आज वह इस कृत्य को पापकर्म मानता है और हर तरह से बहुउपयोगी गाय के प्रति श्रद्धा भाव रखता है?
अगर हमारे पूर्वजों के समय कुछ सामाजिक कुरीतियां थी भी तो उसका निवारण करना क्या हमारी बुद्धि के उत्कृष्टता का परिणाम नहीं माना जाना चाहिये महज इसलिये गाय को काट के खाया जाए कि ऐसा किसी धर्मग्रंथ में लिखा है तो यह दलील भी स्वीकार्य नहीं है।
हम अपनी माँ के साथ गाय का दूध भी पीकर पलते है। अपनी सगी माँ का दूध तो दो-ढ़ाई साल की उम्र में छूट जाता है पर गौमाता का दूध सारी उम्र नहीं छूटता।
गाय जैसा बहुउपयोगी जीव तो कोई नहीं है। गाय धरती पर की अकेली जीव है जिससे प्राप्त होनेवाली कोई भी चीज बेकार नहीं है।
उपरोक्त विवरण के अनुसार यह भी स्पष्ट है की इस्लाम परम्परा में भी गौमांस का वर्णन कदाचित् नहीं पाया जाता था क्योंकि भारत में पहली बार 1000 ई. के आसपास जब विभिन्न इस्लामी आक्रमणकारी तुर्की, ईरान (फारस), अरब और अफ़गानिस्तान से आये और वे इस्लामी परंपराओं के अनुसार विशेष अवसरों पर वे ऊंट और बकरी और भेड़ बलिदान करते थे।
हालांकि, मध्य और पश्चिम एशिया के इस्लामी शासक, गोमांस खाने के आदी नहीं थे, उन्होंने भारत में आने के पश्चात् गाय के वध को और गायों की क़ुरबानी, विशेष रूप से बकरी ईद के अवसर पर शुरू किया लगता है. भारतवर्ष में गौहत्या का प्रारम्भ अंग्रेजों के पादार्पण के साथ हुआ। वे ठंडे क्षेत्र से आते थे जहाँ गौमांस और सुअर मांस उनका आहार था। यहाँ आने पर उन्हें कसाई प्रारम्भ में इंग्लेंड से ही लाने पड़े थे।
ब्रिटिश भारत में गोहत्या और विरोध
2000 से अधिक वर्षों से यूरोप की गाय का मांस एक प्रमुख उपभोक्ता है। 19 वीं सदी के प्रारंभिक भाग में भारत में ब्रिटिश शासन के आगमन के साथ एक नई स्थिति गोरों के आने से, जो गोमांस खाने के अभ्यस्त थे उत्त्पन्न हुयी। लेखक "N.G. चेरन्यस्विसकी ने उपन्यास (अंग्रेजी संस्करण विंटेज 1961) में लिखा रूसी लोगों को विश्वास है कि गोमांस मनुष्य को महान शक्ति और सहनशक्ति देता है। स्वाभाविक रूप से, गोरों ने भारत में 19 वीं सदी में भारत के विभिन्न भागों में गौहत्या को शुरू किया और पश्चिमी तर्ज पर भारत के विभिन्न भागों में वधघरों की एक बड़ी संख्या विशेषत: ब्रिटिश सेनाओं की तीन कमान (बंगाल, मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी में) बनाये गये। इनमें कसायिओं को बड़ी संख्या में रखा जाना था। हिंदुओं ने इस काम को मना कर दिया इसलिए परिवर्तित भारतीय ईसाइयों और मुसलमानों कसाई को गायों के वध के लिए उपयोग किया गया।
हरियाणा के लाला हरदेव सहाय ने अपनी जीवनी में एक अनुमान दिया कि किसी एक वर्ष में इस्लामी शासन के दौरान मारे गए गायों की अधिकतम संख्या 20,000 गायों से ज्यादा नहीं थी । जबकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 1917 में मुजफ्फ़रपुर में दिए गए भाषण में 30,000 प्रतिदिन गौवध कहा ब्रिटिश (CMMG 14, पृष्ठ 80) (सालाना 1 करोड़ 10 लाख) यह समय था जब ब्रिटिश ने भारतीय गायों की निंदा शुरू कर दी व प्रचार किया की भारत में अंधविश्वासी लोग जिनका जानवर, नदियों, पेड़ों और पौधों भूमि में एक अंधविश्वास था, और भारतीय कमज़ोर और गंदे मैले थे, और यहाँ तक कि उनके पशु कमज़ोर नस्लों के और अर्थव्यवस्था पर भार थे।
महान लेखक मुंशी प्रेमचंद ने अपने उपन्यास “ “गोदान” में इस भावना को प्रगट किया, जब उन्होंने अपने पात्रों में से एक किसान द्वारा एक पश्चिमी नस्ल की गाय की खरीद की वकालत की। कृषि पर रॉयल आयोग की 1928 की रिपोर्ट के अनुसार, स्थानीय भारतीय गाय नस्लों को कमज़ोर और बेकार बताया और इस प्रकार इस देश में उन्होंने विदेशी नस्लों की आमद को शुरू कर दिया।
१८०० ई में देश में ब्रिटिश अधिकारियों और सैनिकों की संख्या 20,000 के आसपास थी 1856 ई में यह संख्या 45,000 के आसपास हो गयी थी और 1858 के अंत तक (विद्रोह) स्वतंत्रता की पहली लड़ाई के बाद यह संख्या एक लाख से अधिक हुई। ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय नागरिकों और सेनाकर्मियों सहित लोगोंकी कुल संख्या 1800-1900 के बीच करीब 3 से 5 लाख थी।
इसका प्रमुख भाग के रूप में उत्तरी भारत और उनके परिवारों में तैनात था। सेना कर्मियों में वृद्धि से गाय की हत्या और मांस की खपत बढ़ गयी उत्तरी भारत के कई हिस्सों में यह चारगुना हो गयी थी।
सिपाही मंगल पांडे ने मुँह से गोमांस लिपित कारतूस खोलने के लिए मजबूर करनेवाले एक संकेत के बाद अपने ब्रिटिश कमांडर को गोली मार दी, जिसे आजादी के प्रथम संग्राम का नाम दिया गया था।
१८७०-७१ में नामधारी सिखों ने एक गाय संरक्षण क्रांति, जिसमें वे अपने जीवन को, गाय की सुरक्षा के लिए त्याग करना, अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू कर दिया। इसे कूका क्रांति के रूप में जाना जाता है।
सद्गुरु रामसिंह जी के अनुयायियों ने अमृतसर के कसाईखाने में बंधी गायों को मुक्त किया और विरोध करने वालों के सर काट दिए और हँसते हरी भजन करते फांसी पर चढ़ गये।
मलेरकोटला पंजाब १४० सिख गौभक्त कसाईखाने में पहुँच गये और गौरक्षा में सफल रहे। इनमें से ८० वीरों को बिना मुक़दमा चलाये ही तोपों से उदार दिया गया था। इन सबके प्रेरक सद्गुरु रामसिंहजी को अंग्रेज शासन ने पकड़ कर रंगून भेज दिया जहां उन्हें फासी दे दी गयी थी।
१९१८ में हरिद्वार के निकट कटारपुर के मुसलमान थानेदार ने बकरी ईद पर गाय क़ुरबानी की घोषणा की काटने के लिए जाती गायों के जुलूस को हनुमान मंदिर के महंत रामपुर के नेतृत्व में बलिदानी गौभक्तों ने रोक लिया। भीषण संघर्ष किया और गौरक्षा में सफल हुए। बाद में दमन कार्यवाही में १३५ गौभक्तों को पकड़ काले पानी का दंड दिया गया तथा ४ गौभक्तों को फंसी पर चढ़ा दिया गया। कुछ साल बाद में, स्वामी दयानंद सरस्वती ने अंग्रेजों के गोहत्या प्रोत्साहन के विरोध में आह्वान किया और गोसंवर्धन सभा जो गाय की हत्या के मुद्दे पर देश के जन संगठन का सुझाव दिया।
1880-1894 वर्षों के दौरान उत्तर भारत भर में एक बहुत ही गहन और व्यापक गौरक्षण आंदोलन प्रारंभ किया जिसमें सब पंजाब राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक उत्तरी और मध्य भारत के गैर हिंदुओं सहित करोड़ों ने इस आंदोलन में सहभाग किया। इस से साधू संन्यासी जुड़े और 1893-1880 अवधि में गाय कसाई के चंगुल से बचाया रखने के लिए सैकड़ों गौशाला खोली गयी थी।
1891 में, महात्मा गांधी ने इस गौरक्षा आंदोलन की सराहना की और लिखा की विरोधी अंग्रेजों द्वारा भारत में महान गौहत्या विरोधी आंदोलन की हत्या की प्रस्तुत है:-
The Great Anti kine-killing Movement against the killing of the cow bythe British in India (1880 – 1894)“And certainly the milking of the cow, which, by the way, has been the subject of painting and poetry, cannot shock the most delicate feeling as would the slaughtering of her. It may be worth mentioning en passant that the cow is an object of worship among the Hindus, and a movement set on foot to prevent the cow from being shipped off for the purpose of slaughter is progressing rapidly.”
M.K. GANDHI ON THE COW: 189(also in Collected Works of MahatmaGandhi (CWMG) Vol. 1, p.19 fromTHE VEGETARIAN, LONDON, 7.2.1891
बिर्टेन का इस आन्दोलन के प्रति विरोध जग जाहिर हुआ जब महारानी विक्टोरिया ने व्यासराय लेंसडाउन को। इस आन्दोलन की चरम सीमा पर ८.१२.१८९३ के पत्र द्वारा कहा की “The Queen greatly admired the Viceroy's speech on the Cow-killing agitation. While she quite agrees in the necessity of perfect fairness, she thinks the Muhammadans do require more protection than Hindus, and they are decidedly by far the more loyal. Though the Muhammadan's cow-killing is made the pretext for the agitation, it is, in fact, directed against us, who kill far more cows for our army, than the Muhammadans.”
यह तथ्य था कि उपरोक्त आन्दोलन १,००,००० से अधिक अंग्रेज़ सेनिको और अन्य गौरों की आबादी को दैनिक गौमांस की आपूर्ति के लिए कत्ल किये जाने वाले गोवंश की रक्षा के लिए था लेकिन मुस्लिमो को लाड प्यार और हिन्दुओं को सबक सिखाने की नीति का निर्देश का पालन किया गया और हिन्दू-मुस्लिम दंगों की आड़ में इसे कुचल दिया गया। इसका उल्लेख देश के महत्वपूर्ण समाचार-पत्रों में प्रमुखता से हुआ. सर्वोदय नेता माननीय धर्मपाल जी ने इसका लेखा-जोखा कई बार दिया विभिन्न पत्रों की सुर्खिया जैसे-- 1. सुलभ दैनिक 11/७ 2. 26/७ 3. ५/८ 4. 7/95. १२/९ 6. चंद्रिका दैनिक ओ–समाचार 17/८ , २१/८,२२/८ 7. 21/८ 8. 22/८ 9. 7/९ 10./९ 11. सहचर ९/८ 12. 30 /८ 13. ढाका गजट १७/७ 14 बंग निवासी ११/८ 15. सुलभ सूचक २१/७ 16. कर्नाटक पत्र ३१/७ 17. राज्य, भक्त 8 /८ 18. कल्पतरु २०/८ 19. महारत 27/८ 20. हिन्दुस्तानी (लखनऊ)12/७ 21.सितारा-ए-हिंद(मुरादाबाद) 22/722. सुभचिन्त्लोक 12/८ 23.शुभ (Jubhulpore) Chintak 19/8 24. २६/८ 25. सुबोध सिंघु (खंडवा) ३०/८ 26. मौजी नेर्बुद्दा १/९/1944 आदि में, जबकि ब्रिटिश अभी भी भारत में सत्ता में थे, सरकार द्वारा 3 वर्ष से कम आयु के सभी पशुओं के वध, नरपशु के बीच 3 और 10 साल, मादा पशु उम्र के 3 और 10 साल के बीच जो दूध का उत्पादन करने में सक्षम हैं सभी गायों जो गर्भवती हैं, पशुओं के वध पर प्रतिबंध किया गया था ।
जबकि कांग्रेस की एक समिति ने कहा कि मरे हुए के मुकाबले में कत्ल किये गये गोवंश से ज्यादा विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है जो कि गौरक्षा के विपरीत मत था। ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण सिफारिशों के अनुसरण के रूप में 1950 में भारत सरकार द्वारा एक आदेश जारी किया गया था कि मृत गाय की त्वचा बलि गायों की त्वचा की तुलना में कम मूल्य देती है और राज्य सरकारों को गौवध पर पूर्ण रोक नहीं शुरू करने की सलाह दी।
गाय संरक्षण पर संविधान सभा के वाद-विवाद
संविधान राज्यों को निदेशक सिद्धांत '48-A. राज्य कृषि और पशु पालन को आधुनिक और वैज्ञानिक तरीकों अपनाएगा और विशेषत: पशु संवर्धन और नस्ल सुधार के सभी जरूरी कदम तथा गाय और विभिन्न काम में आनेवाले पशु विशेषत: दुधारू और कृषि उपयोगी पशु और उनके वंश को हत्या से बचाएगा। 24 नवम्बर १९४८ को संविधान सभा में प्रस्ताव पर बहस के दौरान, पंडित ठाकुर दास भार्गव (पूर्वी पंजाब), सेठ गोविंददास (सीपी और बरार) श्री आर.वी. धुलेकर (संयुक्त प्रांत), प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना (संयुक्त प्रांत), श्री राम सहाय (संयुक्त राज्य ग्वालियर - इंदौर - मालवा - मध्य भारत) और डॉ. रघुवीरा (सीपी और बरार) आदि ने स्वीकृत करने के लिए पक्ष में महत्वपूर्ण और पुरजोर आवाज़ में विषय रखा। यह दिलचस्प है कि संयुक्त प्रांत के एक मुस्लिम सदस्य श्री JH लारी ने सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के हित में कहा कि "इसलिए, अगर सदन की राय है कि गायों की हत्या प्रतिबंधित किया जाना चाहिए तो स्पष्ट, निश्चित और गैर दुअर्थी शब्दों में निषिद्ध किया जाना चाहिए। मैं नहीं चाहता कि हम कुछ लिखे और हमारी मंशा कुछ और हो। मेरी प्रार्थना है की अच्छा हो अगर पूरी सभा आगे आये और बुनियादी अधिकारों में धारा जोड़े कि अबसे गोवंश हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध होगा ना की निर्देशक सिद्धान्तो में विभिन्न राज्य सरकारों को यह या वोह नियम बनाने को या ना बनाने को छोड़े। देश में सद्भाव और विभिन सम्प्रदायों में सद्भावना के नाम में मैं अनुरोध करता हूँ की यह बहुसंख्यकों के लिए अपने को स्पष्ट और ठोस शब्दों में रखने का सही अवसर है। अगर वे खुले में बाहर आते हैं और सीधे कहते हैं, यह हमारे धर्म का हिस्सा है। गोहत्या से संरक्षित किया जाना चाहिए और इसलिए हम मौलिक अधिकारों में नाकि निर्देशक सिद्धांतों में प्रावधान करना चाहते हैं।
इसी तरह, संविधान सभा के एक और असम से मुस्लिम सदस्य, श्री सैयद मुहम्मद सैअदुल्ला ने कहा,"महोदय, सदन के समक्ष बहस का विषय अब धार्मिक और आर्थिक दो विषयों पर है। मैं तुलनात्मक धर्मों के छात्र हूँ। हमारे संविधान में एक खंड है कि गौवंशवध हमेशा के लिए बंद कर दिया जाना चाहिए शायद यह धार्मिक आधार पर है।
मैंने उनकी भावनाओं के लिए सहानुभूति और सराहना की है, मुझे पता है कि गाय हिंदू सम्प्रदाय की देवी के रूप में है और इसलिए वे यह बलि का विचार नहीं कर सकते। धार्मिक पुस्तक, पवित्र कुरान मुसलमानों को एक आदेश कह रही है 'ला इकरा बा खूंदी दीन', यानि धर्म के नाम में कोई बाध्यता नहीं होना चाहिए। इसलिए मैं अपने वीटो का प्रयोग मैं एक मुसलमान के रूप में नहीं करना चाहता। जब मेरे हिंदू भाई धार्मिक दृष्टि से इस बात को रखना चाहते हैं। मैं नहीं चाहता कि, मौलिक अधिकारों में शामिल किए जाने केकारण,गैरहिंदुओं के बारे में शिकायत हो कि वे उनकी मर्जी के खिलाफ एक निश्चित बात को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया है।
सारांश में संविधान सभा की पूर्ण बहस से नतीजा निकलता है की एक प्रारम्भिक प्रयास मौलिक अधिकारों में गोवंश हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध शामिल किए जाने के लिए किया गया था। यह पंडित ठाकुरदास भार्गव, सेठ गोविंद दास और प्रो. शिब्बनलाल सक्सेना द्वारा दिए गए भाषणों से स्पष्ट है।
बड़े महत्वपूर्ण विचारों और सुझाओं और भारतीय जन मानस को जो गौवंश को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करते हुए मौलिक सिद्धांतों में रखना चाहते थे, को अनदेखा करते हुए विषय को राज्यों को निदेश सिद्धांत ४८ में डाल दिया गया.
विभाजन और दो राष्ट्र सिद्धांत की स्वीकृति के इतिहास केबावजूद, सत्तारूढ़ पार्टी ने अविवादित गोवंशहत्या निषेध स्वीकार नहीं किया यद्यपि प्राचीन काल से पूरे देश के लोगों द्वारा "गोमाता" के रूप में पूजा गया है। संविधान सभा की ओर से उपर्युक्त चूक का अब भी सुधार किया जा सकता है।
आधुनिक भारत में गाय की दुर्दशा
देश की स्वतन्त्रता संग्राम दो बैलों की जोड़ी के नेतृत्व में लड़ा गया था। तत:पश्चात कांग्रेस पार्टी के चुनाव चिन्ह के रूप में रखा गया जो कांग्रेस विभाजन यानि १९६९ तक नेतृत्व करता रहा। इसके पश्चात भी इसका स्थान गाय-बछड़े ने लिया। त्रिमूर्ति को राष्ट्रीय चिन्ह की मान्यता दी गयी जिसमें बैल भी है।
अंग्रेजों से स्वतंत्रता संग्राम में गोरक्षा को एक बड़ा मुद्दा माना गया था। दो बैलों की जोड़ी स्वतन्त्रता संग्राम में जन भावना का मान और प्रदर्शन था। देश का हर नेता देश की जनता को विश्वास दिलाता था कि आज़ादी से बड़ा प्रश्न गोरक्षा का है और स्वतंत्र भारत में प्रथम कार्य कलाम की नोक से गोहत्या को रोकने का होगा।
लेकिन संविधान सभा में अथक प्रयास के बाद भी, मुस्लिम सदस्यों के सहकार के बाद भी पूर्ण गोहत्या निषेध मूलभूत सिद्धांतों में स्थान नहीं पा सका। इतिहास साक्षी है की सविंधान सभा पूर्ण गौवंश रक्षा के लिए सहमत थी केवल पंडित नेहरु ने इसे अपनी निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर विरोध किया और अपने त्यागपत्र तक की धमकी दे डाली थी।
इस दुःख भरी गौ खून की बहती गंगा की कहानी बड़ी दर्दनाक, समाज के लिए शर्म, देश को झटका, विधि विधानों की दुर्दशा बयां करती है। इस दुर्दशा में पंडित जवाहरलाल नेहरु जी का प्रारम्भ से ही मुख्य हाथ माना गया।
इसका स्वतन्त्रता के पश्चात लगभग ४०० करोड़ गौवंश का कत्लखानो में काट दिया जाना ही नहीं, कृषि की लागत बढ़ना, नकली रासायनिक दूध कृषको की आत्महत्या जैसे कितने ही परिणाम गिनवाये जाते हैं।
आज उसी गोवंश को छद्म धर्मनिरपेक्षिता और हरित क्रांति के नाम में ट्रेक्टर और रासायनिक उर्वरक के आक्रमण ने गोवंशको मिटा दिया और गोवंश को अलाभकर और अनुपयोगी बना दिया है।
स्वतंत्रता के ६५ वर्षों के पश्चात् ४००० वैधानिक और ५०,००० अवैधानिक कत्लखानों में कटता हुआ जनप्रिय गोवंश लालची कसाई और चमडा माफिया से नहीं बचाया जा सक रहा है।
इस पवित्र धरा पर जो गोमाता माँ के रूप में पूजी जाती, साधू संतों, देवी-देवताओं, राम, कृष्ण, शिव, महावीर, गुरुनानक, तेगबहादुर, गोविन्द सिंह, बुद्ध, अशोक, विनोबा भावे, शंकराचार्य, हरदेव सहाय, अटलबिहारी वाजपयी और अनेक महापुरुषों द्वारा पूजित गोवंश, आज अनुपयोगी, असहनीय और भार बना दिया गया है।
१९६६ के गौरक्षा आन्दोलन के दौरान संसद में पूर्ण गौवंश हत्या बंद करने का आश्वासन दिया गया था लेकिन आश्वासनों के पश्चात भी ना तो गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगा ना ही करोड़ो गोवंश की रक्षा की जा सकी । देश का गोभक्त समाज गत ६५ वर्षों में चुप नहीं बैठा. इस प्रयास में संघ परिवार हर कार्यवाही और हर मंच में शामिल रहा.
स्वराज आन्दोलन के नेताओं का देश को आश्वासन
महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, लाला लजपत राय, पंडित मदन मोहन मालवीय, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास टंडन आदि स्वराज आंदोलन के सभी प्रमुख नेताओं ने देश की जनता को बारम्बार आश्वस्त किया कि देश को स्वतंत्रता का लक्ष्य प्राप्त होने पर गोहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया जायेगा और स्वदेशी सरकार की पहली कार्रवाई होगा।
महात्मा गाँधी ने १९२७ में स्वराज से बड़ा प्रश्न गोरक्षा कहा, “As for me, not even to win Swaraj, will I renounce my principle of cow protection.”1940 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की विशेष समिति ने कहा कि गोवंश हत्या पूरी तरह से वर्जित किया जाना चाहिए। आजादी से पूर्व वर्षों में गायों की बलि की संख्या में असामान्य वृद्धि हुई थी।
पंडित ठाकुरदास द्वारा संविधान सभा में बहस के दौरान, २४.११.1948 को कहा कि 1944 में 60,91,828 बैल मार डाले गये और 1945 में, पैंसठ लाख कत्ल किये गये यानी 4 लाख से अधिक की वृद्धि हुई। उन्होंने आगे कहा कि देश में 5 साल में (1940 से १९४५) बैलों की आबादी में 37 लाख से की कमी हुई।
गौ में विदेशी प्रजातियों का षड्यंत्र
पशुपालन को आधुनिक और वेज्ञानिक आधार पर सम्वर्धन और नस्ल सुधार बढ़ावा देने में, बिना अपनी मृदा, खेतों का आकार, जनसंख्या, अपने बैलों की शक्ति, विशेषत: देश के पारंपरिक तरीकों आदि को भुला पाश्चात्य देशों का अंधानुकरण किया गया।
जैसा ऊपर वर्णन किया गया है, अंग्रेजी शासन काल में रहन-सहन, शिक्षा, वस्त्र उत्पादन के साथ गौवंश की देशी प्रजातियों को नष्ट करने का षड्यंत्र भी किया गया। वह प्रजातियाँ, जो की ना तो हमारी जलवायु, ना ही यहाँ के चारे आदि की अभयस्त थी उन्हें अधिक दुग्ध प्रदान करने वाली कह कर स्थापित करा गया। एक तरफ कृषि और ग्रामीण परिदृश्य में मशीनीकरण और दूसरी और इन विदेशी प्रजातियों ने हमारे कृषि प्रधान देश की रीढ़ ही तोड़ डाली।
कृषि में मशीनीकरण और रासायनिक उर्वरकों ने ना केवल खेती की लागत असीम बढ़ोत्तरी कर डाली बल्कि जल, मिट्टी और फसल को जहरीला बना दिया जो उपभोक्ता और पशुओं के लिए घातक हो गया। गायों की उत्पादकता को सुधारने में कृत्रिम गर्भाधान द्वारा विदेशी नस्ल के वीर्य का उपयोग कर क्रॉस नस्ल और जर्सी और होलेस्तिन-फ्रीजियन आदि को बढ़ावा दिया गया। जबकि यह नसले हमारे देश की गर्मी सहन नहीं कर पाती हैं और तुलना में दुगना चारा खाती हैं। इनके कारण अनसुनी बिमारियों का प्रकोप होता जा रहा है। क्योंकि इनका दुग्ध हमारी देसी नस्लों से बहुत घटिया माना गया है। विदेशी प्रजाति के बैल हम्प ना होने के कारण हल चलाने और यातायात में अयोग्य पाए गये हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के गोवंश संरक्षण आन्दोलन
स्वतंत्र भारत में समय-समय पर देश के कई भागों में गोहत्या के खिलाफ आंदोलन मुख्य रूप से उत्तर भारतीय शहरों जैसे मुंबई, इलाहाबाद, अहमदाबाद, दिल्ली में अदि में होता रहा 1966 में, एक बड़े पैमाने पर विरोध मार्च आयोजित किया गया, जिसमें सभी धर्मों, जातियों और आयु समूहों के लोगों ने भाग लिया। शांतिपूर्ण प्रदर्शन में संसद मार्ग, दिल्ली में जो एक सौ के आसपास लोगों की जानचलीगयी थी।
वर्ष 1979 में आचार्य विनोबा भावे ने गोहत्या की रोकथाम के प्रश्न पर एक 1979/04/22 से अनिश्चितकालीन उपवास पर जाने का फैसला किया। उनकी मांग थी कि पश्चिम बंगाल और केरल की सरकारों को गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने कानून अधिनियमित करने के लिए सहमत होना चाहिए।
१२/४/१९७९ को लोकसभा में एक निजी सदस्य के संकल्प को पारित किया गया था। संकल्प 42 मतों से ८ मत विरोध में और १२ अनुपस्थित से अनुमोदित किया गया था। संकल्प "यह संसद सरकार को संत विनोबा भावे के २१ अप्रैल से अनशन और पशु संवर्धन और विकास समित्ति की राय, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देशक सिद्धांत ४८ की व्याख्या अनुसार गोवंश हत्या पर पुर्ण प्रतिबंध लगाया जाए इसके पश्चात् उस समय के प्रधानमंत्री द्वारा संसद में घोषणा की गयी की सरकार गो सुरक्षा के विषय पर संविधानिक क्षमता के लिए संविधान परिवर्तन करेगी और संविधान संशोधन विधेयक १८.५.१९७९ को संसद में रखा गया था जो छठी लोकसभा भंग होने के बाद निरस्त हो गया।
जुलाई 1980 में आचार्य विनोबा भावे ने अखिल भारतीय गोसेवा सम्मेलन को संबोधित करते हुए गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग को दोहराया और उन्होंने अनुरोध किया कि गायों को एक राज्य से दूसरे राज्य में नहीं जाना चाहिए।
१९८१ में सरकार ने पुन: विधेयक लाने का विचार किया लेकिन विषय के गंभीर परिणाम और राजनीतिक मजबूरियों को सोचते हुए उठो और देखो निति अपनाई गयी हालाँकि विभिन्न शिकयातों का संज्ञान लेते हुए प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधीने४.२.१९८१को आंध्रप्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, हरयाणा, हिमाचलप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पुंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और जम्मू कश्मीर सभी १४ राज्यों को पत्र भेजा और कहा-- गोहत्या पर प्रतिबंध का पालन करें। कत्लखानों को जाने वाले पशुओं की समिति जाँच करें कुछ सरकारों की गोरक्षा अधिनियमों की अवहेलना और संज्ञान ना लेने के कारण सलाह दी गयी कि यह सरकारी आयोग के संज्ञान में लाया जाये।
गौरक्षा आन्दोलन -7 नवम्बर १९६६
७ नवम्बर १९६६ की घटना देश के इतिहास में काले अक्षरों में लिखी गयी भारत की कांगेस सरकार जिसमें इंदिरा गाँधी प्रधानमन्त्री थी, श्री लाल बहादुर शास्त्री जिन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया और पूर्ण गौवंश रक्षा के समर्थक थे, का असमय निधन हो चूका था। भारत १९६५ की लडाई में विजयी हो कर उभरा था।
बहुत आशा के साथ कि केंद्र सरकार हिन्दू धर्म भावनाओं का महत्व समझेगी और गौहत्या निषेध की माँग अवश्य मान लेगी, देश के कोने-कोने से आये परम पूजनीय करपात्री जी के नेतृत्व में देश के गौभक्त लाल किले पर एकत्र होकर संसद को ज्ञापन देने को अहिंसक रूप में लगभग १० लाख की संख्या में आगे बढे ।
संसद मार्ग पर इस विशाल जनसमूह जो एक सभा के रूप में परिवर्तित हो चूका था उस समय के सांसदजनप्रिय श्रीअटल बिहारी वाजपयीजी ने संबोधित किया। प्रधानमंत्री घबरा गयी और उन्होंने तत्कालीन गृहमंत्री श्री गुलजारीलाल नंदा को, इस शांत जनसमुद्र पर गोली चलाने को कहा जो उन्होंने अस्वीकार कर दिया। लेकिन राजहट, त्रियाहट जग जाहिर है। प्रधानमंत्री ने गृह सचिव के माध्यम से निहत्ते, शांत गौभक्तो और साधू संतो पर गोलियां चलवा दी. सैकड़ो साधू संत गौभक्तो की उसही स्थान पर निर्मम हत्या हो गयी।
भगदड़ में कितने ही नारी बालक वृद्ध कुचले गए। गौभक्तों पर २०९ राउंड गोलियों की बौछार की गयी थी। डॉक्टरी जांच में स्पष्ट था की यह गोलियाँ मारने के लिए छोड़ी गयी थी ना की ज़ख्मी या तितर-बितर करने के लिए। अनुमानत: ३०० से अधिक साधू संत गौभक्त शहीद हो गये थे। हजारों गौभक्तों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया था जिनके ऊपर बर्बर कैदियों द्वारा यातना पहुँचाई गयी थी।
सायं ३ बजे ४८ घंटे का कर्फ्यू लगा दिया गया था क्योंकि बिखरी लाशों को अँधेरे में ठिकाने लगाना था। समाचारों से बचने को रातों रात इन लाशो की दुर्दशा करते हुए तेल डाल कर जला दिया गया । आचार्य महा मंडलेश्वर स्वामी प्रकाशानंद जी, आर्य नेता रामगोपाल शाल वाले, पूरी शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ जी आदि ने इस घटना को दिल्ली और देश का काला दिन बताया।
श्री जगदीश मुखी जो उस समय MAके विद्यार्थी थे इस पूर्ण आन्दोलन में अग्रिम पंक्ति में विद्यमान थे और इस भीषण नरसंहार की याद कर ठीठर उठते हैं।
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