रविवार, 12 अप्रैल 2009
गोरक्षा में उद्योग का संभावित योगदान
प्रिय गोभ्क्तों,
शायद राम राज्य से गोहत्या के पाप का वर्णन हम सुनते आ रहे है । दैत्य धर्म भ्रष्ट करने को वैष्णवों के भोजन में गोमांस मिलाया करते थे। आज का द्रश्य बड़ा भयावह है। देश के पर्तियेक कोने में गोवंश का अमानवीय संहार देखा जा सकता है।
धर्म, भाषण, विधि विधान, आन्दोलन, सत्याग्रह, यात्राएं आदि सभी प्रयास पूर्ण परिणाम नही ला पा रहे हैं। गोशालाएं अत्ति सुंदर कार्य कर रही हैं परन्तु देश की लगभग ६-८,००० गोशालाओं में दानदाताओं का अरबो रूपया प्रतिवर्ष दान में आता है और गोशाला के प्रबंधक सिर्फ़ दान जुटाने, रशीद काटने, दानदाताओं के नाम के पत्थर लगाने या सम्मान करने में ही अपने कार्य की सीमा पुरी समझ लेते हैं।
कार्यकारिणी के सद्श्य आपस ऐ नाम की लड़ाई को लेकर वयस्त रहते देखे गये हैं । केन्द्रीय अवम राज्य सरकारें सहायता देने का ढोंग तो करती हैं परी वास्तविकता आम तौर per बिल्कुल विपरीत पाई जाती है
आज गोवंश को निरुपयोगी, निसहाय और समाज पर भार माना जाने लगा है एक प्राणी पर प्रति दिन लगभग रु २५- खर्च आता है। गोचर भूमि जो कभी हर गाँव की शान होती थी ओछे लालच में भूमाफिओं द्वारा कब्जा ली गयी है। नंदी, वर्षभ, बैल आज ग्राम अर्थ व्यवस्था से बहुत दूर किए जाकर kasaayi
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